हमारे शरीर में जहॉं- जहॉं दो हड्डियॉं तिलती है , अर्थात जहॉं जहॉं उनके जोड़ है , उन्हें हड्डियों की सन्धियां कहते है। महा ईश , जगत नाथ , प्रथम: अध्याय
ऊपर से पहले शब्द ‘महा’ के अंत में ‘आ’ स्वर है तथा दूसरे शब्द ‘ईश’ के प्रारम्भ में ‘ई’ स्वर है। जब पहला शब्द महा दूसरे शब्द ईश से सन्धि करेगा , लेन देन में परिवर्तन तो होगा ही। अत: अ+इ से ए हो गया , और नया सन्धियुक्त शब्द बना ‘महेश’।
इसी प्रकार तीसरे शब्द के अंत में त् व्यंजन है। वह चौथे शब्द ‘नाथ’ से मिला , तो त् का न् उसके अनुरूप हो गया , सन्धि युक्त पूरा शब्द बना जगन्ननाथ ।
पॉंचवे शब्द के अंत में विसर्ग: है। अगले शब्द से संधि होने पर इसमें भी परिवर्तन होगा और इस विसर्ग का – ओ हो जाएगा। नया संधियुक्त् शब्द बना प्रथमोध्याय: ।पहले शब्द के अंत में स्वर है , तो अगले शब्द के आदि अक्षर के साथ जो सन्धि , उसका नाम है ,स्वरसंधि ।
तीसरे शब्द के अंत में व्यंजन है। अगले शब्द के आदि अक्षर के साथ जो सन्धि हुई ,उसका नाम है व्यंजन सन्धि ।
पॉंचवें शब्द के अंत में विसर्ग है , तो इसका अगला शब्द के आदि अक्षर के साथ मेल होने पर विसर्ग सन्धि हुई।
सन्धि के तीन प्रकार हैं :-
स्वर सन्धि
व्यंजन सन्धि
विसर्ग सन्धि
भाषा में सन्धि का अर्थ है अक्षरों का मेल – एक शब्द के अंतिम अक्षर का और परवर्ती शब्द के शुरू के अक्षर का मेल ।
इस प्रक्रिया में विधान निम्नलिखित प्रकार से होता है –
पहले शब्द का अंतिम अक्षर + परवर्ती शब्द का आदि अक्षर परिवर्तन
सन्धि स्वर + स्वर (दानों में परिवर्तन व्यंजन किसी में कोई परिवर्तन नहीं
व्यंजन व्यंजन + स्वर पहले से परिवर्तन व्यंजन प्राय: दोनो में
विसर्ग विसर्ग + स्वर विसर्ग में परिवर्तन व्यंजन विसर्ग में परिवर्तन
संधि हर भाषा में होती है। हिन्दी में भी होती है। रात दिन= राद्दिन , पहुँच जाऊँगा= पहुँआऊँगा ,कर लिया =कललिया
बोलने में संधि अवश्य हो जाती है। लिखाई में थोड़े से संधियुक्त शब्द प्रचलित है , जैसे – अब ही =अभी , यह ही= यही , वहॉं ही =वही , न ही =नहीं
स्वर सन्धि
मूल स्वर चार है – अ इ उ ऋ । इन्हें हस्व स्वर कहते हैं। इन्हें छोटा अ , छोटी इ , छोटा उ कहते है। व्याकरण में इन्हें हृस्व अ , हृस्व इ , हृस्व उ , ह्स्व ऋ कहते है।
हृस्व स्वरों के तेल से दीर्घ स्वर बनते हैं ,नीचे दोनों स्तमभें में जों आठ स्वर हैं वे दीर्घ है।
अ+अ =आ
अ+इ=ए
इ+इ =ई
अ+ए=ऐ
उ+उ =ऊ
अ+उ=ओ
ऋ+ऋ =ऋृ
अ+ओ=औ
इनके लिए बड़ा आ , बड़ी इ , बड़ा उ कहते रहते हैं।
दीर्घ संधि
एक ही स्वर के , अर्थात् स्वर्ण के , दो रूप (हस्व चाहे दीर्घ) एक दूसरे के बाद आ जाऍं , तो दोनों जुड़कर दीर्घ रूपवाला स्वर हो जाता है।
नोट – ‘अ’ ‘आ’ के बाद जितने स्वर आ सकते हैं- अ , आ , इ , ई, उ , ऊ, ऋ , ए, ऐ, ओ, औ ।उन सबकी संधि का निपटारा दीर्घ संधि , गुण संधि और वृध्दि संधि के अंतर्गत हो गया ।
यण् संधि
‘इ’ या ‘ई’ के पश्चात ‘इ’ या ‘ई’ को छोड़कर कोई और स्वर हो तो ‘इ’ या ‘ई’ के स्थान पर ‘य’ हो जाता है। जैसे –
वर्ण का पहला और दूसरा वर्ण अर्थात् क्, ख्, च , छ् , ट् , ठ , त , थ् , प् , फ् और श , ष , स अघोष हैं।
वर्ण के तीसरे , चौथे और पॉंचवें वर्ग (अर्थात ग् , ज्, ड्, ट् , ब् ,घ् , झ्, द् , भ् , इ् , ण् ,न् ,म्) एवं य् , र् , ल् , व् ह् सघोष व्यंजन हैं।
नोट :- वर्णमाला में व्यंजनों का जो रूप सिखाया जाता है , उसमें ‘अ’ स्वर निहित है- जैसे क क् अ् , ल ल् अ र र् अ । व्यंजन का वास्तविक रूप हलन्त होता है।
व्यंजन सन्धि के नियम
अघोष व्यंजन के पश्चात् स्वर या संघोष व्यंजन हो तो अघोष का सघोष हो जाता है।जैसे:-
पहले शब्द के अंत में म् और उसके बाद वर्ग का निरनुनासिक व्यंजन ऐ हो तो म् के स्थान पर अगले शब्द का पंचमाक्षर अथवा विकल्प से पंचमाक्षर हो जाता है। हिन्दी में अब अनुस्वार का प्रचलन व्याप्त है। उदाहरण –
यदि म् के बाद य र ल व अथवा श ष स ह हो तो अनुस्वार ही होता है। उदाहरण :-
सम्+यम=संयम संयम, संशय , संरक्षण , संसार , संलग्र ,संवाद
न का ण – यदि शब्द में ऋ् र् ष् के बाद न् हो , भले ही बीच में कोई स्वर , क वर्ण , व्यंजन , प वर्ग व्यंजन , अथवा य व ह हो , तो न का ण हो जाता है। जैसे –
विसर्ग का चिन्ह ‘:’ है। उच्चारण के लिए अ: (अह्) बोलते है। इसकी गणना व्यंजनो में होती है। हिन्दी में व्यवहत संस्कृत के शब्दों में सह केवल अ: अंत वालों और दृ: तथा नि: उपसर्गो में पाया जाता है।
अ: के बाद अ अथवा संघोष व्यंजन हो , तो अ: का ओ हो जाता है। जैसे :-